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आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णाम्। ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yad duvaḥ śatakratav ā kāmaṁ jaritṝṇām | ṛṇor akṣaṁ na śacībhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। यत्। दुवः॑। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। आ। काम॑म्। ज॒रि॒तॄ॒णाम्। ऋ॒णोः। अक्ष॑म्। न। शची॑भिः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:30» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:30» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:6» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसके सेवन से क्या फल होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शतक्रतो) अनेकविध विद्या बुद्धि वा कर्मयुक्त राजसभा स्वामिन् ! आप स्तुति करनेवाले धार्मिक जनों से (तत्) जो आप का (दुवः) सेवन है, उस को प्राप्त होकर (शचीभिः) रथ के योग्य कर्मों से (अक्षम्) उसकी धुरी के (न) समान उन (जरितॄणाम्) स्तुति करनेवाले धार्मिक जनों की (कामम्) कामनाओं को (आ) (ऋणोः) अच्छी प्रकार पूरी करते हो॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों का सेवन विद्यार्थियों का अभीष्ट अर्थात् उनकी इच्छा के अनुकूल कामों को पूरा करता है, वैसे परमेश्वर का सेवन धार्मिक सज्जन मनुष्यों का अभीष्ट पूरा करता है। इसलिये उनको चाहिये कि परमेश्वर की सेवा नित्य करें॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तत्सेवनात् किं फलमित्युपदिश्यते॥

अन्वय:

हे शतक्रतो सभापते ! त्वं जरितृभिः यत्तव दुवः परिचरणं तत् प्राप्य शचीभिः शकटार्हकर्मभिरक्षं न इव तेषां जरितॄणां कामं आऋणोः तदनुकूलं प्रापयसि॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (यत्) वक्ष्यमाणम् (दुवः) परिचरणम् (शतक्रतो) शतविधप्रज्ञाकर्मयुक्त सभेश राजन् (आ) अभितः पूर्त्यर्थे (कामम्) काम्यते यस्तम्। (जरितॄणाम्) गुणकर्मस्तावकानाम् (ऋणोः) प्रापयसि। अस्यापि सिद्धिः पूर्ववत् (अक्षम्) अश्यन्ते व्याप्यन्ते प्रशस्ता व्यवहारा येन तम् (न) इव (शचीभिः) कर्मभिः॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा सभास्वामी राजा विद्वत्सेवनं विद्यार्थिनामभीष्टं पूरयति तथा परमेश्वरस्य सेवनं धार्मिकाणां जनानां सर्वमभीष्टं प्रापयति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैस्तत् सेवनीयमिति॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा विद्वानांचा स्वीकार केल्यामुळे विद्यार्थ्यांचे अभीष्ट अर्थात त्यांच्या इच्छेच्या अनुकूल काम पूर्ण होते, तसा परमेश्वराचा स्वीकार केल्यामुळे धार्मिक सज्जन माणसांचे अभीष्ट पूर्ण होते. त्यासाठी त्यांनी परमेश्वराची नित्य भक्ती करावी. ॥ १५ ॥